Wednesday, September 15, 2010

चाह रहती है की लिखूं
इस फोरम में नित नित नया
अपनों के बीच है सुरक्षा
ये नहीं कि हर गलती पर गया
सवाल नाक का बन जाये
ऐसा नहीं होता घर हरेक
मेरा पहाड़ है उपवन
हरियाली और दे खुशबु यहाँ प्रत्येक
हैं कई प्रसंसक निशंक के
कुछ घोर विरोधी नौछमी के
मुझे भी मिलते रहते
चाहक मेरे भी चाहे हों गिनती
के इस आँगन में खुशियाँ लाये बहार
इस चाहत में रहूँ सदा
बसते हो तुम ह्रदय में मेरे
पर याद करलिया करो यदाकदा
सावन है घटायें हैं बरसेंगी
सुनाएंगी अफ़साने मेरे यार के
लगी हो बाहर रिमझिम वर्षा
गुनगुनालो गीत बीती बार के
सम्मलेन के प्रतियोगी पहुचे "जागरण"
जाने शब्दों का मोल कभी
मुफ्त में भी बरसालो
नित राह देखू आपकी मै डोल डोल

No comments:

Post a Comment