Saturday, August 14, 2010

भागना है आसान यही मुझे लगता है अभी भी
पूर्वज भी भागते आये थे इस शायद तब भी
उन्होने देखा था मस्त मौसम और सौंदर्य उस धरा का
न बहा पाया मै भी पसीना लगा मुझे जीवन मरा मरा सा
सोचूं भाग के शहर जाऊं छोड़ उकाल उन्धार
शहर आके जेब खाली ये कैसा मजधार
करूँ चाकरी दफ्तर में किसी के बाबू
न करू तो पेट की आग हो रही बेकाबू
बुझी आग पेट की न पर बुझा पाया मै मन की
देख प्रदुषण गर्मी गन्दगी और बास इस तन की
सोचा छोड़ इस भारत चला जाऊं कहीं और
भागते भागते कट गयी उम्र आया नया दौर
तब था आसन भागना क्यों तब था मै और मेरा थैला
आज मै हूँ मेरा है थोडा सामान और साथ में लैला

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